अगर कभी पन्नों के पास अल्फाज़ होते,
क्या बताऊं फूट-फूट कर वो कितना रोते।
बताते वो बीती हुई हर दर्द की वो दास्तां,
जब कभी उनके पास तन्हा अकेले हम होते।
कलम भी रुक जाती फिर देखकर वो कारवां,
कहती वो कि टूटे दिल पर अब क्या लिखूं, तू बता?
हर शायरी एक नया निशान छोड़ जाती है,
बेदाग पन्नों पर वो अक्सर दाग रह जाती हैं।
अगर कभी पन्नों के पास भी अल्फाज़ होते,
क्या वो भी सब सहकर हम जैसे खामोश होते?
हर खामोश चहरे उन पन्नों की तरह होते है,
भले कुछ बयां न करे,
अकेले तन्हा रोते हैं।
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